खेचरी मुद्रा

मुद्रैषा खेचरी प्रोक्ता भक्तानां अनुरोधतः ।

सिद्धिनां जननी ह्येषा मम प्राणाधिके प्रिये ।

निरन्तर कृताभ्यासम् पीयूषम् प्रत्यहं पीवेत् ।

तेन निग्रहम् सिद्धिस्यात् मृत्यु मातंग केशरी ।।

अर्थात् – (शिव जी ने देवी से कहा) हे प्रिये ! भक्तों के अनुरोध के कारण ही मैंने अपने प्राणों से प्रिय इस खेचरी मुद्रा को प्रकाशित किया जो सिद्धियों को जन्म देने वाली माता समान है । जो इसको निरन्तर अभ्यास करता है वह नित्य ही अमृत का पान करता है और निग्रह की (मृत्यु ; मानसिक अस्थिरता और इंद्रियों के वहिर्मुखी स्वभाव से मुक्ति की) सिद्धि होती है , और मृत्यु को वह ऐसे जीत लेता है जैसे सिंह और हाथी की लड़ाई में सिंह विजयी होता है ।

कपाल कुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ।

भ्रुवौ: अन्तर्गता दृष्टि मुद्रा भवति खेचरी ।

अर्थात् – कपाल के गर्त में जिह्वा को विपरीत दिशा में प्रवेश करा कर दोनो भौं के बीच भेद करके जाने बाली दृष्टि रखने से वो खेचरी मुद्रा बनती है ।

चित्तं चरति खे यस्य जिह्वां चरति खे यतः ।

तेनेया खेचरी मुद्रा सर्व सिद्ध नमस्कृता ।।

अर्थात् – जिसकी चेतना शून्य में विचरण कर रही हो , जिसकी  जिह्वा शून्य में उठगयी हो, वही खेचरी मुद्रा है जिसे सारे सिद्ध प्रणाम करते हैं ।

लावण्यं  च भवेत् गात्रे समाधि: जायते ध्रुवं ।

कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात् ।।

अर्थात् –  कपाल और मुख के इस संयोग से जिह्वा में दिव्य रसों की अनुभूति होती है, शरीर में लावण्य की वृद्धि होती है तथा समाधि होती ही है ।

मनः स्थिरं यस्य बिनावलम्बनम् ।

वायु स्थिरो यस्य बिनावरोधनम् ।

दृष्टि स्थिरा यस्य बिनावलोकनम् ।

स एव मुद्रा विचरन्ति खेचरी ।।

अर्थात् – बिना किसी आधार के जब मन स्थिर हो जाए , बिना अवरोध के बिना रोके जब वायु (श्वास) अपने आप स्थिर हो जाए , दृष्टि स्थिर हो किन्तु किसीको देख न रहा हो, स्थूल जगत से दृश्य संबंधी संवेदनाओं का अभाव हो; ऐसी जो स्थिति , उसको खेचरी मुद्रा जानो ।

न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा ।

न च मूर्च्छा भवेत् तस्य यो मुद्रा वेत्ति खेचरीं ।

अर्थात् – जो खेचरी मुद्रा को जानता है , उसके लिए न रोग है, न मरण, न निद्रा है, न क्षुधा और तृष्णा है और न किसी प्रकार की मूर्च्छा है ।

जरामृत्युगदघ्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले । 

ग्रंथतः च अर्थतः चैव तदभ्यास प्रयोगतः ।

तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्त्वा समाश्रयेत् ।।

अर्थात् – ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास से जो जरा, मृत्यु तथा व्याधि विनाशक इस खेचरी मुद्रा को जानता हो, उसी गुरु से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए ।

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