गीता चिन्तन १

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।12.6।।

अर्थात् :- परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा ही ध्यान करते हैं।।

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।

अर्थात् :- हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।।

—◆किस प्रकार से चित्त को श्रीभगवान में स्थिर करना है ?

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।12.8।।

अर्थात् :- तुम मुझमें अपने मन को रखो बुद्धि को मुझमें ही निवेश करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है।।

—◆अगर चित्त को श्रीभगवान में स्थिर नहीं रख सकते तो क्या करें ?

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9।।

अर्थात् :- हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो।।

—◆अगर अभ्यास में भी समर्थ नहीं हो तब ? 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।12.10।।

अर्थात् :- यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।।

—◆श्रीभगवान का कार्य क्या है , जिसे करते हुए सिद्धि मिलेगी ? 

१८वे अध्याय में श्रीभगवान कहते हैं :- 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्िचन्मे प्रियकृत्तमः।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18.69।।

अर्थात् :- न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।

—◆तो वह कार्य क्या है ? एक श्लोक पहले कहते हैं :-

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्ितं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।

अर्थात् :- जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है।।

—◆बिना अध्ययन किये तो यह संभव नहीं है , अतः अध्ययन करने से क्या होता है ? 

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।।

अर्थात् :- जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा – ऐसा मेरा मत है।।

—◆जो इसको बताएगा उसके बारे में तो बताया । जिसको बताया जाएगा उसका क्या होगा ??

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।।

अर्थात् :- तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा।।

छठे अध्याय अनुसार अभ्यास योग से भ्रष्ट भी पुण्य लोकों को प्राप्त करते हैं । उसके बाद क्या होता है, वह छठे अध्याय में है । 

—◆अर्जुन ने सुना , और उसकी क्या दशा हुई ???

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।18.72।।

अर्थात् :- हे पार्थ ! क्या इसे (मेरे उपदेश को) तुमने एकाग्रचित्त होकर श्रवण किया ? और हे धनञ्जय ! क्या तुम्हारा अज्ञान जनित संमोह पूर्णतया नष्ट हुआ ?

अर्जुन उवाच

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।

अर्थात् :- अर्जुन ने कहा — हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गयी है । अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा।।

—◆संजय ने सुना और स्मरण किया तो उसकी क्या दशा हुई ? 

संजय उवाच

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।

अर्थात् :- हे राजन् ! भगवान् केशव और अर्जुन के इस अद्भुत और पुण्य (पवित्र) संवाद को स्मरण करके मैं बारम्बार हर्षित होता हूँ।।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।

विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।

अर्थात् :- हे राजन ! श्री हरि के अति अद्भुत रूप को भी पुन: पुन: स्मरण करके मुझे महान् विस्मय होता है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।।

और बिना गुरुकृपा के यह संभव नहीं । क्यों कि

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।

अर्थात् :- व्यास जी की कृपा से मैंने इस परम् गुह्य योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगोश्वर श्रीकृष्ण भगवान् से सुना।।

गुरुकृपा से ही श्रीभगवान का प्रकृत संदेश समझ आ सकता है ।

संजय कहते हैं :- 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78। ।

अर्थात् :- जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।

श्रीगुरु अर्पणं अस्तु

1 thought on “गीता चिन्तन १”

Leave a Comment

%d bloggers like this: