गीता चिन्तन २ || Thoughts on Gita 2

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निम्न श्लोक के योगिक भाष्यों के ऊपर एक व्यक्तिगत चिन्तन :-

अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।4.29।।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।

अर्थात् :- अन्य (योगीजन) अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं तथा प्राण में अपान की आहुति देते हैं प्राण और अपान की गति को रोककर वे प्राणायाम के ही समलक्ष्य समझने वाले होते हैं।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।।

प्राण का स्थान हृदय में है, अपान का स्थान नीचे गुदा प्रदेश के पास है । चिकित्सा शास्त्र अनुसार हृदय दो हैं , एक रचनात्मक हृदय अर्थात् शरीर संरचना अनुसार , जो पसलियों के भीतर , फेफड़ों के पास है ; दूसरा क्रियात्मक हृदय अर्थात् जो शरीर के क्रियाओं को नियंत्रित करे, आचार्यों के अनुसार यह मस्तिस्क है । आत्मा शरीर की सारी क्रियाओं को नियन्त्रित करता है, इसका स्थान मस्तक के दशाङ्गुल परिमित स्थान में होने से मस्तिष्क को योगियों का हृदय कहा जाता है । इसी मस्तिष्क रूपी हृदय में प्राण का स्थान है ।

अपाने जुह्वति प्राण – कुछ अपान में प्राण का हवन करते हैं । अर्थात् मेरुदण्ड के ऊपर मस्तिष्क में स्थित प्राण को नीचे मूलाधार में हवन करते हैं । मेरुदण्ड का ऊपर उत्तर ध्रुव है और नीचे दक्षिण ध्रुव । ऊपर से नीचे प्राण को लाने से प्रक्रिया का चक्र पुनः ऊपर समाप्त होता है उत्तरायण में । यह योग ऐश्वर्य प्राप्ति करवाता है । यह सृष्टि क्रम से आकर पुनः संहार क्रम से अपने उत्स में विलीन होने की विधि है ।

प्राणेऽपानं तथाऽपरे :- कुछ दूसरे प्राण में अपान की आहुति देते हैं । मूलाधार स्थित अपान को ऊपर स्थित प्राण में मिलित करते हैं । नीचे से ऊपर अपान को उठाने से प्रक्रिया का चक्र पुनः नीचे समाप्त होता है दक्षिणायन में । यह भोग ऐश्वर्य की प्राप्ति करवाता है । यह संहार क्रम से जाकर पुनः सृष्टि में लौटने का मार्ग है ।

एक में योग से सिद्धि है , दूसरा भोग से सिद्धि का मार्ग है । इन मार्गों में चलना कैसे है गुरुवक्त्रगम्य विद्या है । पहले जो उत्तरायण का मार्ग है वह वायु को ऊपर स्थिर करता है , जिससे ऊपर के केन्द्रों के ऐश्वर्य प्रकट होते हैं , दूसरे में नीचे के केन्द्रों के ऐश्वर्य प्रकट होते हैं । दूसरा मार्ग प्रारम्भिक साधकों के लिए है , जिससे सांसारिक कुछ विभूतियों को प्राप्त करलेता है , जो सहायक होती हैं पहले वाले उत्तरायण के मार्ग को पकड़ने के लिए । प्रारम्भिक तैयारी हो जाए तो फिर गुरुआज्ञा लेकर साधक उत्तरायण के मार्ग में चलता है , जिसमें और लौटके आना नहीं होता । प्रारम्भिक साधना अगर एक जन्म में शेष न हो पाए तो फिर संसार में लौटके आना होता है । साधना में क्योंकि प्राण को संसार की और (नीचे के चक्रों की और) विसर्जित करने का अभ्यास होता है, उसी भाव से भावित होने के कारण अन्त समय में साधक उसी मार्ग को पकड़ता है एवं शरीर त्यागने के बाद पुनः साधना आगे बढ़ाने के लिए संसार में आता है । षष्ठ अध्याय के अन्त में कुछ संकेत मिलेंगे ।

साधारणतः जीवन में योग हो तो भोग नहीं होता और भोग हो तो योग नहीं । किन्तु दोनो एक साथ कैसे हो वह किसी करुणामय सतगुरु के कृपा के कारण अधिकारी शिष्यों के लिए प्रकाशित होता है, जिसमें उपरोक्त दोनों मार्ग का सम्मिश्रण होता है । यह गुरुवक्त्रगम्य विद्या है ।
यह पथ क्योंकि चक्राकार होता है इसलिए समय आने पर गुरु के सूक्ष्म आन्तरिक निर्देश से दक्षिणायन मार्ग की सजगता उत्तरायण में रूपान्तरित हो जाती है किसी किसी साधक में ।

यह जो प्रक्रिया होती हैं , यह श्वास के ग्रहण और विरेचन से सम्पादित होती है । जिसको पूरक और रेचक कहते हैं । साधारणतः पूरक से रेचक की मात्रा ज्यादा होती है । तो श्वास को निर्देशित विधि अनुसार चालन करने से , श्वास के इन दोनों धाराओं में समता आती है , तथा यह धीरे धीरे शिथिल हो कर स्थिरत्त्व को प्राप्त करते हैं मेरुदण्ड के भीतर। स्वाभाविक रूप से यह जो स्थिरता उपनीत होती है, इसी प्राकृतिक स्वाभाविक स्थिति को प्राणायाम कहते हैं ।

योग ग्रंथों के कुछ उक्ति इसके बारे में –

” प्राणो वायुरिति ख्यातः आयामं च निरोधनम्” । —
प्राण को वायु के रूप में जाना जाता है, आयाम अर्थ उसका निरोध ।

“तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायामः”। —
श्वास प्रश्वास के गति विच्छेद को ही प्राणायाम कहते हैं ।

आगे , अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।– और कुछ नियताहाराः (जिन्होंने श्वास की आहरण और रेचन के गति को नियन्त्रित कर के स्थिर किया है) हैं जिन्होंने पूर्वोक्त विधि से अपान के प्रभाव को शान्त कर दिया , जिस से उनका प्राण अब ऊपर स्थिर हो जाता है , जिसको वह महाप्राण में अर्पित करते हैं , गुरूपदिष्ट पद्धति से प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं ।

अब प्राण के लिए “स” ध्वनि निर्दिष्ट की गई और अपान के लिए “ह” । अजपा जप में संदेह रहता है “हंस” करें या “सोहं” । दोनो एक हैं । दूसरी बात रेचक के समय कौनसी ध्वनि और पूरक के समय कौनसी ध्वनि इसमें संदेह रहता है । इसमें अलग परंपराओं में अलग पद्धति है । बाहर जा रहे वायुको अपान और आ रहे वायु को प्राण माने तो रेचक में “हं” पूरक में “स” होता है । बाहर जा रहे वायु को प्राण और भीतर आ रहे वायु को अपान माने तो पूरक में “हं” और रेचक में “स” होता है । इसको समझना थोड़ा उल्टा लग रहा हो किन्तु थोड़ा चिन्तन करें तो दोनों के पीछे का तर्क पता चलता है और दोनों ही मान्य हैं योग साधना में । क्यों कि कोई भी हो समय क्रम से मरा मरा जप से राम जैसे होता है वैसे ही अभ्यास करते करते जो सठीक है अपने आप लय में आ जाता है और उसमें श्वास के साथ उसका जप जितना जरूरी नहीं होता , हर श्वास की सजगता एवं हर श्वास में हंस के अर्थ का जो तत्त्व है उसके भाव की सजगता ज्यादा जरूरी होती है ।

श्रीगुरु अर्पणं अस्तु
~ सोमदत्त
8।11।2018
12:14AM

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