अन्त : करणकी शुद्धिके अनुसार ज्ञानके अधिकारी तीन प्रकारके होते हैं— उत्तम , मध्यम और कनिष्ठ । उत्तम अधिकारीको श्रवणमात्रसे तत्त्वज्ञान हो जाता है । मध्यम अधिकारीको श्रवण , मनन और निदिध्यासन करनेसे तत्त्वज्ञान होता है । कनिष्ठ अधिकारी तत्त्वको समझनेके लिये भिन्न – भिन्न प्रकारकी शंकाएँ किया करता है । उन शंकाओंका समाधान करनेके लिये वेदों और शास्त्रोंका ठीक – ठीक ज्ञान होना आवश्यक है ; क्योंकि वहाँ केवल युक्तियोंसे तत्त्वको समझाया नहीं जा सकता । अतः यदि गुरु तत्त्वदर्शी हो , पर ज्ञानी न हो , तो वह शिष्यकी तरह तरहकी शंकाओंका समाधान नहीं कर सकेगा । यदि गुरु शास्त्रोंका ज्ञाता हो , पर तत्त्वदर्शी न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी , जिससे श्रोताको ज्ञान हो जाय । वह बातें सुना सकता है , पुस्तकें पढ़ा सकता है , पर शिष्यको बोध नहीं करा सकता । इसलिये गुरुका तत्त्वदर्शी और ज्ञानी – दोनों ही होना बहुत जरूरी है ।
~ स्वामी रामसुख दास जी महाराज ,श्रीमद्भगवद्गीता, साधक संजीवनी टीका