देवता और पितरों का श्राद्धान्न ग्रहण करके अजीर्ण होना और उसका निवारण संबंधी उपाख्यान (महाभारत से)

भीष्मजी कहते हैं – युधिष्ठिर ! इस प्रकार जब महर्षि निमि सबसे पहले श्राद्धमें प्रवृत्त हुए , उसके बाद सभी महर्षि शास्त्रविधिके अनुसार पितृयज्ञका अनुष्ठान करने लगे ॥

सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले और नियमपूर्वक व्रत धारण करनेवाले महर्षि पिण्डदान करनेके पश्चात् तीर्थके जलसे पितरोंका तर्पण भी करते थे ॥

भारत ! धीरे – धीरे चारों वर्णोंके लोग श्राद्धमें देवताओं और पितरोंको अन्न देने लगे । लगातार श्राद्धमें भोजन | करते – करते वे देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गये । अब वे अन्न पचानेके प्रयत्नमें लगे । अजीर्णसे उन्हें विशेष कष्ट होने लगा । तब वे सोम देवताके पास गये एवं अजीर्णसे पीड़ित पितर इस प्रकार बोले — ‘ देव ! हम श्राद्धान्नसे बहुत कष्ट पा रहे अब आप हमारा कल्याण कीजिये ‘ ॥

तब सोमने उनसे कहा – ‘ देवताओ ! यदि आप कल्याण चाहते हैं तो ब्रह्माजीकी शरणमें जाइये , वही आपलोगोंका कल्याण करेंगे ‘ ॥

भरतनन्दन ! सोमके कहनेसे वे पितरोंसहित देवता मेरुपर्वतके शिखरपर विराजमान ब्रह्माजीके पास गये ॥

पितरोंने कहा– भगवन् ! निरन्तर श्राद्धका अन्न खानेसे हम अजीर्णतावश अत्यन्त कष्ट पा रहे हैं । देव ! हमलोगोंपर कृपा कीजिये और हमें कल्याणके भागी बनाइये ॥

पितरोंकी यह बात सुनकर स्वयम्भू ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा – ‘ देवगण ! मेरे निकट ये अग्निदेव विराजमान हैं । ये ही तुम्हारे कल्याणकी बात बतायेंगे

अग्नि बोले – देवताओ और पितरो ! अबसे श्राद्धका अवसर उपस्थित होनेपर हमलोग साथ ही भोजन किया करेंगे । मेरे साथ रहनेसे आपलोग उस अन्नको पचा सकेंगे , इसमें संशय नहीं है ॥

नरेश्वर ! अग्निकी यह बात सुनकर वे पितर निश्चिन्त हो गये ; इसीलिये श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है ॥

पुरुषप्रवर ! अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान दिया जाता है , उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते । अग्निदेवके विराजमान रहनेपर राक्षस वहाँसे भाग जाते हैं । 

सबसे पहले पिताको पिण्ड देना चाहिये , फिर पितामहको । तदनन्तर प्रपितामहको पिण्ड देना चाहिये । यह श्राद्धकी विधि बतायी गयी है । श्राद्धमें एकाग्रचित्त हो प्रत्येक पिण्ड देते समय सावित्री का उच्चारण करना चाहिये ॥

पिण्ड – दानके आरम्भमें पहले अग्नि और सोमके लिये जो दो भाग दिये जाते हैं , उनके मन्त्र क्रमश : इस प्रकार हैं – ‘ अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ‘ , ‘ सोमाय पितृमते स्वाहा । ‘

 जो स्त्री रजस्वला हो अथवा जिसके दोनों कान बहरे हों , उसको श्राद्धमें नहीं ठहरना चाहिये । दूसरे वंशकी स्त्रीको भी श्राद्धकर्ममें नहीं लेना चाहिये । 

जलको तैरते समय पितामहों ( के नामों ) का कीर्तन करे । किसी नदीके तटपर जानेके बाद वहाँ पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण करना चाहिये ॥ 

पहले अपने वंशमें उत्पन्न पितरोंका जलके द्वारा तर्पण करके तत्पश्चात् सुहृद् और सम्बन्धियोंके समुदायको जलांजलि देनी चाहिये ॥

जो चितकबरे रंगके बैलोंसे जुती गाड़ीपर बैठकर नदीके जलको पार कर रहा हो , उसके पितर इस समय मानो नावपर बैठकर उससे जलांजलि पानेकी इच्छा रखते हैं । अतः जो इस बातको जानते हैं , वे एकाग्रचित्त हो नावपर बैठनेपर सदा ही पितरोंके लिये जल दिया करते हैं । 

महीनेका आधा समय बीत जानेपर कृष्णपक्षकी अमावास्या तिथिको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये । पितरोंकी भक्तिसे मनुष्यको पुष्टि , आयु , वीर्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥

कुरुकुलश्रेष्ठ ! ब्रह्मा , पुलस्त्य , वसिष्ठ , पुलह , अंगिरा , क्रतु और महर्षि कश्यप – ये सात ऋषि महान् योगेश्वर और पितर माने गये हैं । राजन् ! इस प्रकार यह श्राद्धकी उत्तम विधि बतायी गयी ॥

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