भगवती स्वधा देवी का पूजन और स्तोत्र
श्रीमद्देवीभागवत के नवम स्कन्द में भगवती स्वधा देवी का दिव्य उपाख्यान एवं पूजन विधि तथा स्तोत्र का वर्णन है । स्वधा देवी ही पितरों तक कव्य पहुंचाती हैं और तृप्ति प्रदान करती हैं ।
आयें इस विषय का स्वाध्याय करते हैं ।
नारदजी बोले-
वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हे महामुने ! मैं भगवती स्वधाकी पूजाका विधान , उनका ध्यान | तथा स्तोत्र सुनना चाहता हूँ ; यत्नपूर्वक बतलाइये।।
श्रीनारायण बोले –
हे ब्रह्मन् ! आप समस्त प्राणियोंका मंगल करनेवाला भगवती स्वधाका वेदोक्त ध्यान तथा स्तवन आदि सब कुछ जानते ही हैं तो फिर उसे क्यों जानना चाहते हैं ? तो भी लोगोंके कल्याणार्थ मैं उसे आपको बता रहा हूँ – शरत्कालमें आश्विनमासके कृष्णपक्षमें त्रयोदशी तिथिको मघा नक्षत्रमें अथवा श्राद्धके दिन यत्नपूर्वक देवी स्वधाकी विधिवत् पूजा करके श्राद्ध करना चाहिये ॥
अहंकारयुक्त बुद्धिवाला जो विप्र भगवती स्वधाका पूजन किये बिना ही श्राद्ध करता है , वह श्राद्ध तथा तर्पणका फल प्राप्त नहीं करता , यह सत्य है ॥
मैं सर्वदा स्थिर यौवनवाली , पितरों तथा देवताओंकी पूज्या और श्राद्धोंका फल प्रदान करनेवाली ब्रह्माकी मानसी कन्या भगवती स्वधाकी आराधना करता हूँ इस प्रकार ध्यान करके शिला अथवा मंगलमय कलशपर उनका आवाहनकर मूलमन्त्रसे उन्हें पाद्य आदि उपचार अर्पण करने चाहिये – ऐसा श्रुतिमें प्रसिद्ध है ॥
हे महामुने ! द्विजको चाहिये कि ‘ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा ‘ इस मन्त्रका उच्चारण करके उनकी विधिवत् पूजा तथा स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे विशारद ! अब आप सभी मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेवाले उस स्तोत्रको सुनिये , जिसका पूर्वकालमें ब्रह्माजीने पाठ किया था ॥
श्रीनारायण उवाच
स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् ।
श्राद्धस्य फलमाप्नोति बलेश्च तर्पणस्य च ॥
श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ।
स लभेच्छ्राद्धसम्भूतं फलमेव न संशयः ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रगुणान्विताम् ॥
पितॄणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी ।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥
नित्या त्वं सत्यरूपासि पुण्यरूपासि सुव्रते ।
आविर्भावतिरोभावौ सृष्टौ च प्रलये तव ॥
ॐ स्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा ।
निरूपिताश्चतुर्वेदैः प्रशस्ता कर्मिणां पुनः ||
कर्मपूर्त्यर्थमेवैता ईश्वरेण विनिर्मिताः ।
इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके स्वसंसदि ॥
तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह |
तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् ॥
तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः ।
स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः शृणोति समाहितः ।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु वाञ्छितं फलमाप्नुयात् ॥
अर्थात्:-
श्रीनारायण बोले –
‘स्वधा ‘ शब्दका उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्य तीर्थस्नायी हो जाता है । वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा वाजपेययज्ञका फल प्राप्त कर लेता है ॥
यदि मनुष्य स्वधा , स्वधा , स्वधा – इस प्रकार तीन बार स्मरण कर ले तो वह श्राद्ध , बलिवैश्वदेव तथा तर्पणका फल प्राप्त कर लेता है ॥
जो व्यक्ति श्राद्धके अवसरपर सावधान होकर स्वधास्तोत्रका श्रवण करता है , वह श्राद्धसे होनेवाला सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है , इसमें सन्देह नहीं है ॥
जो मनुष्य त्रिकाल सन्ध्याके समय स्वधा , स्वधा , स्वधा – ऐसा उच्चारण करता है ; उसे पुत्रों तथा सद्गुणोंसे सम्पन्न , विनम्र , प्रिय तथा पतिव्रता स्त्री प्राप्त होती है ॥
हे देवि ! आप पितरोंके लिये प्राणतुल्य और ब्राह्मणोंके लिये जीवनस्वरूपिणी हैं । आप श्राद्धकी अधिष्ठात्री देवी हैं और श्राद्ध आदिका फल प्रदान करनेवाली हैं ॥
हे सुव्रते ! आप नित्य , सत्य तथा पुण्यमय विग्रहवाली हैं । आप सृष्टिके समय प्रकट होती हैं तथा प्रलयके समय तिरोहित हो जाती हैं ॥
आप ॐ , स्वस्ति , नमः स्वाहा , स्वधा तथा दक्षिणा रूपमें विराजमान हैं । चारों वेदोंने आपकी इन मूर्तियोंको अत्यन्त प्रशस्त बतलाया है । प्राणियोंके कर्मोंकी पूर्तिके लिये ही परमेश्वरने आपकी ये मूर्तियाँ बनायी हैं ॥
ऐसा कहकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें अपनी सभामें विराजमान हो गये । उसी समय भगवती स्वधा सहसा प्रकट हो गयीं । तब ब्रह्माजीने उन कमलमुखी स्वधादेवीको पितरोंके लिये समर्पित कर दिया । उन भगवतीको पाकर पितरगण अत्यन्त हर्षित हुए और वहाँसे चले गये । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर भगवती स्वधाके इस पवित्र स्तोत्रका श्रवण करता है , उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान कर लिया । वह इसके प्रभावसे वांछित फल प्राप्त कर लेता है ॥