योगबल से कैसे शरीर त्यागना है उसको गीता में भगवान बताते हैं ।
- प्रयाणकाले मनसाऽचलेन
- भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
- भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8.10।।
अर्थात् :- प्रयाण के समय मनके द्वारा अचल भाव से भक्तिसे युक्त योगबल के द्वारा , भौहों के मध्यमें सम्यक रूपसे प्राण को आविष्ट करके उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।
- यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
- विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
- यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
- तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।
अर्थात् :- वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं – उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।।
- सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
- मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।8.12।।
- ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
- यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।8.13।।
अर्थात् :- सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और अपने प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ, जो पुरुष ॐ, इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।।
क्यों ?
पहले ही बोल दिया
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
अर्थात् :- हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।
अतः अन्तकाल में अपने आप वह भाव नहीं होगी कि व्यक्ति हृदय में मन को स्थिर करके मूर्द्धा में प्राण को स्थापित कर श्रीभगवान का स्मरण करते हुए शरीर छोड़े । उसके लिए सर्वदा “सदा तद्भावभावितः” का अभ्यास चाहिए , अर्थात् सर्वदा उसी भाव में रहना चाहिए, अर्थात् मूर्द्धा पर्यन्त प्राण ले कर श्रीभगवान के स्मरण का अभ्यास होना चाहिए । इसी अभ्यास के फलस्वरूप, अन्त समय में भी वह भाव अपने आप आएगा ।
ऋषि याज्ञवल्क्य ने इसे संक्षेप में सुंदर समझाया है :-
प्रभंजनं मूर्ध्निगतं सबह्निं ,
धिया समासाद्य गुरूपदेशात् ।
मूर्धानमुद्भिद्य पुनः खमध्ये ,
प्राणं त्यजोङ्कारमनुस्मर त्वम् ।।
अर्थात् :- गुरूपदेश अनुसार अग्निके साथ वायु जब मूर्द्धामें जाता है, (तब) तुम बुद्धिद्वारा पुनः ॐकार का स्मरण करो, मूर्द्धा को उपर की तरफ भेदते हुए प्राण को शून्य में त्याग करो ।
ऋषि याज्ञवल्क्य के शब्द बहुत अच्छे लगे इसलिये गीता के साथ समन्वय की चेष्टा की।
इससे पहले याज्ञवल्क्य जी ने कहा है
बलाकाश्रेणिवद् व्योम्नि विरराज समीरणः ।
आभ्रूमध्यात् सुषुम्नायां संस्थितो हुतभुक् तदा ।।
सजलाम्बुदमालासु विद्युल्लेखेव राजते ।।
अर्थात् :-
आकाशमें उड़ते हुए बगुलों की पंक्ति की भाँति जब शुन्यमें वायु रहता है, तब भ्रूमध्य से उपर सुषुम्ना में अग्नि स्थित हो जाती है । कड़कती हुई विजली युक्त मेघमाला के जैसे यह शोभायमान होती है ।
अर्थात् पहले प्राण को भ्रूमध्य पर्यन्त लाना है ।
भ्रूमध्यस्थ आकाश में जब वायु स्थित होगी , तो भ्रूमध्य से उपर सुषुम्ना में अग्नि स्थित होगी ।
वही अग्नि वायु के साथ गुरूपदेश से फिर मूर्द्धा में जायेगा ।
वहाँ से मूर्द्धा को उद्भिद्य (ऊपर भेदते हुए) ॐ कार के साथ प्राण त्याग करना होगा
जो मस्तकमें प्राण लेनेका अभ्यास करते हैं , उनकी योग में कुछ उपलब्धि हो तो, सजगता के साथ मूर्द्धा भेद करके जाते हैं ।
उपलब्धि न भी हो तो भी , अभ्यास के कारण अन्त में श्वास अपने आप मस्तकसे होते हुए चला जाता है । व्यक्तिगत जीवन में ऐसा होते हुए सुना है (जिसने बताया योग का ज्ञान उनको नहीं, किन्तु मृतशय्या स्थित व्यक्ति ने कैसे आखरी श्वास ली उसका वर्णन किया । मृतशय्या पर जो थे वह गृहस्थ होते हुए भी एक मौन योगी के समान थे , अतः बात समझ में आ गयी)
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