वर्णविभागपूर्वक मनुष्यों की एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन
भृगुरुवाच।
असृजद् ब्राह्मणानेव पूर्वं ब्रह्मा प्रजापतीन्।
आत्मतेजोभिनिर्वृत्तान् भास्कराग्निसमप्रभान्।। १ ।।
अर्थात् :- भृगु जी कहते हैं – मुने! ब्रह्माजी ने सृष्टि के प्रारंभ में अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होनेवाले ब्राह्मणों, मरीचि आदि प्रजापतियों को ही उत्पन्न किया ।
ततः सत्यं च धर्मं च तपो ब्रह्म च शाश्वतम्।
आचारं चैव शौचं च सर्गाय विदधे प्रभुः।। २ ।।
अर्थात् :- उसके बाद भगवान ब्रह्माने स्वर्गप्राप्ति के साधनभूत सत्य, धर्म, तप, सनातन वेद, अचार एवं शौच के नियम बनाये ।
देवदानवगन्धर्वा दैत्यासुरमहोरगाः।
यक्षराक्षसनागाश्च पिशाचा मनुजास्तथा।। ३ ।।
अर्थात् :- तदनन्तर देव, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, महान सर्प, यक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच एवं मनुष्यों को उत्पन्न किया ।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम।
ये चान्ये भूतसङ्घानां संघास्तांश्चापि निर्ममे।। ४ ।।
अर्थात् :- द्विजश्रेष्ठ ! फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र – इन चार वर्णों को रचना की और प्राणी समुदाय में जो अन्य समुदाय हैं, उनकी भी सृष्टि की ।
ब्राह्मणानां सितो वर्णः क्षत्रियाणां तु लोहितः।
वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा।। ५ ।।।
अर्थात् :- ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला एवं शूद्रों का काला बनाया ।
भरद्वाज उवाच।
चातुर्वर्ण्यस्य वर्णेन यदि वर्णो विभिद्यते।
सर्वेषां खलु वर्णानां दृश्यते वर्णसंकरः।। ६ ।।
अर्थात्:- भरद्वाज जी ने पूछा – प्रभो! यदि चारो वर्णों में से एक वर्ण के साथ दूसरे वर्ण का रंग भेद है , तब तो सभी वर्णों में विभिन्न रंग के मनुष्य होने के कारण वर्णसंकरता ही दिखायी देती है ।
कामः क्रोधो भयं लोभः शोकश्चिन्ता क्षुधा श्रमः।
सर्वेषां नः प्रभवति कस्माद्वर्णो विभिद्यते।। ७ ।।।
अर्थात्:- काम, क्रोध, भय, लोभ, शोक, चिन्ता, क्षुधा एवं थकावट का प्रभाव हम सब लोगों पर समान रूप से ही पड़ता है; फिर वर्णों का भेद कैसे सिद्ध होता है ?
स्वेदमूत्रपुरीषाणि श्लेष्मा पित्तं सशोणितम्।
तनुः क्षरति सर्वेषां कस्माद्वर्णो विभज्यते।। ८ ।।
अर्थात्:- हम सब लोगों के शरीर से पसीना, मल, मूत्र, कफ, पित्त और रक्त निकलते हैं । ऐसी दशा में रंगों के द्वारा वर्णों का विभाग कैसे किया जा सकता है ?
जङ्गमानामसङ्ख्येयाः स्थावराणां च जातयः।
तेषां विविधवर्णानां कुतो वर्णविनिश्चयः।। 9 ।।
अर्थात्:- पशु , पक्षी, जङ्गम प्राणियों तथा वृक्ष आदि स्थावर जीवों को असंख्य जातियाँ हैं । उनके रंग भी नाना प्रकार के हैं, अतः उनके वर्णों का निश्चय कैसे हो सकता है ?
भृगुरुवाच।
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्राह्मणाः पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गताः।। १०।।
अर्थात्:- भृगु जी ने कहा – मुने! पहले वर्णों में कोई अन्तर नहीं था । ब्रह्मा जी से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत ही ब्राह्मण था । पीछे विभिन्न कर्मों के कारण उनमें वर्णभेद हो गया ।
कामभोगप्रियास्तीक्ष्णाः क्रोधनाः प्रियसाहसाः।
त्यक्तस्वधर्मा रक्ताङ्गास्ते द्विजाः क्षत्रतां गताः।। ११ ।।।
अर्थात्:- जो अपने ब्राह्मणोचित कर्म का परित्याग करके विषयभोग के प्रेमी, तीखे स्वाभव वाले, क्रोधी और साहस का काम पसंद करने वाले हो गये और इन्ही कारणों से जिनके शरीर का रंग लाल हो गया, वे ब्राह्मण क्षत्रिय भाव को प्राप्त हुए – क्षत्रिय कहलाने लगे ।
गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीताः कृष्युपजीविनः।
स्वधर्मान्नानुतिष्ठन्ति ते द्विजा वैश्यतां गताः।। १२ ।।
अर्थात्:- जिन्होंने गौओंसे तथा कृषिकर्म के द्वारा जीविका चलाने की वृत्ति अपना ली और उसीके कारण जिनके रंग पिले पड़ गये तथा जो ब्राह्मणोचित कर्म को छोड़ बैठे, वे ही ब्राह्मण वैश्य भाव को प्राप्त हुए ।
हिंसानृतप्रिया लुब्धाः सर्वकर्मोपजीविनः।
कृष्णाः शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजाः शूद्रतां गताः।। १३।।
अर्थात्:- जो शौच और सदाचार से भ्रष्ट हो कर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये, लोभवशः व्याधों के समान सभी तरह के निन्द्य कर्म करके जीविका चलाने लगे और इसीलिये जिनके शरीर का रंग काला पड़ गया , वे ब्राह्मण शुद्र भाव को प्राप्त हो गये ।
इत्येतैः कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गताः।
धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।।१४।।
अर्थात्:- इन्ही कर्मोंके कारण ब्राह्मणत्व से अलग होकर वे सभी ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्ण के हो गये, किन्तु उनके लिये नित्य धर्मानुष्ठान और यज्ञ कर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है ।
इत्येते चतुरो वर्णा येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्रह्मणा पूर्वं लोभात्त्वज्ञानतां गताः।।१५।।
अर्थात्:- इस प्रकार यह चार वर्ण हुए, जिनके लिये ब्रह्मा जी ने ब्राह्मी सरस्वती (वेदवाणी) प्रकट की । परंतु लोभविशेष के कारण शुद्र अज्ञानभाव को प्राप्त हुए- वेदाध्ययन के अनाधिकारी हो गये ।
ब्राह्मणा ब्रह्मतन्त्रस्थास्तपस्तेषां न नश्यति।
ब्रह्म धारयतां नित्यं व्रतानि नियमांस्तथा।। १६।।
अर्थात्:- जो ब्राह्मण वेद के आज्ञा के अधीन रहकर सारा कार्य करते, वेद मंत्रों को सदा स्मरण रखते एवं सदा व्रत और नियमों का पालन करते हैं, उनकी तपस्या कभी नष्ट नहीं होती है ।
ब्रह्म चैव परं सृष्टं ये तु जानन्ति तेऽद्विजाः।
तेषां बहुविधास्त्वन्यास्तत्र तत्र हि जातयः।। १७।।
अर्थात्:- जो इस सारी सृष्टि को परब्रह्म परमात्मा का रूप नहीं जानते हैं , वे द्विज कहलाने के अधिकारी नहीं हैं । ऐसे लोगों को नाना प्रकार को दूसरी दूसरी योनियों में जन्मलेना पड़ता है ।
पिशाचा राक्षसाः प्रेता विविधा म्लेच्छजातयः।
प्रनष्टज्ञानविज्ञानाः स्वच्छन्दाचारचेष्टिताः।।१८।।
अर्थात्:- वे ज्ञान-विज्ञान से हीन स्वेच्छाचारी लोग पिशाच, राक्षस, प्रेत तथा नाना प्रकार की म्लेच्छ जाति के होते हैं ।
प्रजा ब्राह्मणसंस्काराः स्वकर्मकृतनिश्चयाः।
ऋषिभिः स्वेन तपसा सृज्यन्ते चापरे परैः।।१९।।
अर्थात्:- पीछे से ऋषियों ने अपने तपस्या के बलसे कुछ ऐसी प्रजा उत्पन्न की , जो वैदिक संकारों से संपन्न तथा अपने धर्म कर्म में दृढ़ता पूर्वक डटी रहनेवाली थी । इस प्रकार प्राचीन ऋषियों द्वारा अर्वाचीन ऋषियों की सृष्टि होने लगी ।
आदिदेवसमुद्भूता ब्रह्ममूलाक्षयाव्यया।
सा सृष्टिर्मानसी नाम धर्मतन्त्रपरायणा।। २०।।
अर्थात्:- किन्तु जो सृष्टि आदिदेव ब्रह्मा के मनसे उत्पन्न हुई है , जिसके जड़-मूल केवल ब्रह्माजी ही हैं , तथा जो अक्षय , अविकारी एवं धर्म में तत्पर रहनेवाली है, वह सृष्टि मानसी कहलाती है ।
~श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि भृगुभरद्वाजसंवादे वर्णविभागकथने अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ।।
अत्यंत उपयोगी प्रसंग।🙏