शिव संहिता में महामुद्रा
महामुद्रां प्रवक्ष्यामि तन्त्रेऽस्मिन्मम वल्लभे ।
यां प्राप्य सिद्धाः सिद्धि च कपिलाद्याः पुरागताः ।। 26 ।।
(शिवजी ने कहा) – हे प्रिये ! में इस तन्त्र में महामुद्रा की बात कहूंगा , जिसे प्राप्त करके कपिल आदि प्राचीन सिद्ध ऋषियों ने सिद्धि प्राप्त की थी ।
अपसव्येन संपीड्य पादमुलेन सादरम् ।
गुरुपदेशतो योनिं गुदमेढ्रान्तरालगाम् ।।27।।
सव्यं प्रसारितं पाद धृत्वा पाणियुगेन वै ।
नव द्वाराणि संयम्य चिबुकं हृदयोपरि ।। 28 ।।
चित्तं चित्तपथे दत्त्वा प्रभवेद्वायुसाधनम् ।
महामुद्रा भवेदेषा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 29 ।।
वामाङ्गेन समभ्यस्य दक्षाङ्गेनाभ्यसेत्पुनः ।
प्राणायामं समं कृत्वा योगी नियतमानसः ।। 30 ।।
गुरु उपदेश अनुसार बाएँ पैर के एड़ी को गुद (मलद्वार) एवं मेढ़्र (जननाङ्ग) के मध्यस्थ योनि स्थान में लगाकर दवाएं । दायाँ पैर सीधा फैला कर उसे दोनों हाथ से पकड़ लें। शरीर के नवद्वारों को संयमित कर चिबुक (ठुड्डी) को हृदय पर स्थापित करें । चित्त को चित्तपथ में लगाकर वायु की साधना करें । यह महामुद्रा कहलाती है, जिसे सभी तन्त्रों में गोपनीय कहा गया है । इसे पहले वामाङ्ग में अभ्यास करके पुनः दक्षिणाङ्ग में अभ्यास करें । संयत चित्त वाले योगी को चाहिए कि, इस प्रकार से प्राणायाम को सम करे ।
अनेन विधिना योगी मन्दभाग्योऽपि सिध्यति ।
सर्वसामेव नाड़ीनां चालनं बिन्दुमारणं ।। 31 ।।
जीवनं तु कषायस्य पातकानां विनाशनम् ।
कुण्डलीतापनं वायोर्ब्रह्मरन्ध्रेप्रवेशनम् ।। 32 ।।
इस विधि से (महामुद्रा से) मन्दभाग्य (हतभाग्य) योगी भी सिद्धिलाभ करलेता है । इसके प्रभाव से समस्त नाड़ियों का परिचालन होकर बिन्दुमारण (बिन्दु/वीर्य का स्थिरीकरण) होता है । इसके द्वारा कुण्डलिनी को जगाकर वायु को ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कराने की क्षमता प्राप्त होती है / कुण्डलिनी जाग्रत हो कर वायु ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करता है ।
सर्वरोगोपशमनं जठाराग्निविवर्धनम् ।
वपुषा कान्तिममलां जरामृत्युविनाशनम् ।। 33 ।।
वांछितार्थफलंसौख्यंमिन्द्रियाणाञ्च मारणम् ।
एतदुक्तानि सर्वाणि योगारूढ़स्य योगिनः ।
भवेदभ्यासतोऽवश्यं नात्र कार्या विचारणा ।। 34 ।।
इसके अभ्यास से सभीरोगों का प्रशमन होता है, जठाराग्नि की वृद्धि होती है । शरीर में अमल कान्ति उत्पन्न होती है तथा जरामृत्यु आदि का विनाश होता है । समस्त अभिलषित वस्तुओं की तथा सुख की प्राप्ति होती है एवं इन्द्रिय मारण (इन्द्रिय संयम) होता है । इसमें कहे गए लाभ योगारूढ़ योगी को अवश्य प्राप्त होते हैं । अभ्यास से अवश्य ही इनकी उपलब्धि होती है, इसमें सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं है ।
गोपानीया प्रयत्नेन मुद्रेयं सुरपूजिते ।
यान्तु प्राप्य भवाम्भोधेः पारं गच्छन्ति योगिनः ।। 35 ।।
मुद्रा कामदुघा ह्येषा साधकानां मयोदिता ।
गुप्ताचारेण कर्तव्या न देया यस्य कस्यचित् ।। 36 ।।
हे देव पूजिता ! आप इस मुद्रा को प्रयत्न के साथ गोपनीय रखना। इसकी उपलब्धि से योगीजन भवसागर को पार कर जाते हैं ।
मेरे द्वारा प्रकशित यह मुद्रा साधकों के लिए कामधेनु है (सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली)। इसे गुप्तरूप से साधन करना चाहिए तथा किसी अयोग्य अनाधिकारी व्यक्ति को नहीं देनी चाहिए ।।
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