शुक्रकृत अष्टमूर्ति स्तव || ShukraKruta Ashta Moorti Stava

ShukraKruta Ashta Moorti Stava

शुक्रकृत अष्टमूर्ति स्तव

त्वं भाभिराभिरभिभूय तमः समस्त-
मस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम्।
देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय
लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥

हे जगदीश्वर ! आप अपने तेजसे समस्त अन्धकारको दूरकर रातमें विचरण करनेवाले राक्षसोंके मनोरथोंको नष्ट कर देते हैं । हे दिनमणे ! आप त्रिलोकीका हित करनेके लिये आकाशमें सूर्यरूपसे प्रकाशित हो रहे हैं , आपको नमस्कार है ।

लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभि
र्निर्भासि कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः।
विद्राविताखिलतमाः सुतमो हिमांशो
पीयूषपूरपरिपूरित तन्नमस्ते ॥

हे हिमांशो ! आप पृथ्वी तथा आकाशमें समस्त प्राणियोंके नेत्र बनकर चन्द्ररूपसे विराजमान हैं और लोकमें व्याप्त अन्धकारका नाश करनेवाले एवं अमृतकी किरणोंसे युक्त हैं । हे अमृतमय ! आपको नमस्कार है ।

त्वं पावने पथि सदा गतिरप्युपास्यः
कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ।
स्तब्धप्रभंजनविवर्द्धितसर्वजंतोः
संतोषिताहिकुलसर्वग वै नमस्ते ॥

हे भुवनजीवन ! आप पावनपथ – योगमार्गका आश्रय लेनेवालोंकी सदा गति तथा उपास्यदेव हैं । इस जगत्में आपके बिना कौन जीवित रह सकता है । आप वायुरूपसे समस्त प्राणियोंका वर्धन करनेवाले और सर्पकुलोंको सन्तुष्ट करनेवाले हैं । हे सर्वव्यापिन् ! आपको नमस्कार है ।

विश्वैकपावक नतावक पावकैक –
शक्ते ऋते मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।
प्राणिष्यदो जगदहो जगदंतरात्मं
स्त्वं पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते ॥

हे विश्वके एकमात्र पावनकर्ता ! हे शरणागतरक्षक ! यदि आपकी एकमात्र पावक ( पवित्र करनेवाली एवं दाहिका ) शक्ति न रहे , तो मरनेवालोंको मोक्ष प्रदान कौन करे ? हे जगदन्तरात्मन् ! आप ही समस्त प्राणियोंके भीतर वैश्वानर नामक पावक ( अग्निरूप ) हैं और उन्हें पग पगपर शान्ति प्रदान करनेवाले हैं , आपको नमस्कार है ।

पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र
चित्रं विचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ
पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥

हे जलरूप ! हे परमेश ! हे जगत्पवित्र ! आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र करनेवाले हैं । हे विश्वनाथ ! आपका यह अमल पानीय रूप अवगाहनमात्रसे विश्वको पवित्र करनेवाला है , अतः आपको नमस्कार करता हूँ ।

आकाशरूपबहिरंतरुतावकाश-
दानाद्विकस्वरमिहेश्वर विश्वमेतत् ।
त्वत्तः सदा सदय संश्वसिति स्वभावात्
संकोचमेति भवतोऽस्मिनतस्ततस्त्वाम् ||

हे आकाशरूप ! हे ईश्वर ! यह संसार बाहर एवं भीतरसे अवकाश देनेके ही कारण विकसित है , हे दयामय ! आपसे ही यह संसार स्वभावतः सदा श्वास लेता है और आपसे ही यह संकोचको प्राप्त होता है , अतः आपको प्रणाम करता हूँ ।

विश्वंभरात्मक बिभर्षि विभोऽत्र विश्वं
को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोऽरिः।
स त्वं विनाशय तमो मम चाहिभूष
स्तव्यात्परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥

हे विश्वम्भरात्मक [ पृथ्वीरूप ] ! हे विभो ! आप ही इस जगत्का भरण – पोषण करते हैं । हे विश्वनाथ ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन अन्धकारका विनाशक है । हे अहिभूषण ! मेरे अज्ञानरूपी अन्धकारको आप दूर करें , आप स्तवनीय पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ हैं , अतः आप परात्परको मैं नमस्कार करता हूँ ।

आत्मस्वरूप तव रूपपरंपराभि-
राभिस्ततं हर चराचररूपमेतत् ।
सर्वांतरात्मनिलय प्रतिरूपरूप
नित्यं नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते ॥

हे आत्मस्वरूप ! हे हर ! आपकी इन रूप परम्पराओंसे यह सारा चराचर जगत् विस्तारको प्राप्त हुआ है । सबकी अन्तरात्मामें निवास करनेवाले हे प्रतिरूप ! हे अष्टमूर्ते ! मैं भी आपका जन हूँ , मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ ।

इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबंधुबंधो
युक्तः करोषि खलु विश्वजनीनमूर्ते ।
एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत
सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ||

हे दीनबन्धो ! हे विश्वजनीनमूर्ते ! हे प्रणतप्रणीत ( शरणागतोंके रक्षक ) ! हे सर्वार्थसार्थपरमार्थ ! आप इन अष्टमूर्तियोंसे युक्त हैं और यह विस्तृत जगत् आपसे व्याप्त है , अत : मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।

शिव महापुराण
[ रुद्रसंहिता , युद्धखण्ड ]

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