सोऽहं हंसः (शिव महापुराण से) Soham Hamsah

हे वामदेव ! अब मैं आपके स्नेहवश ‘ हंस ‘ इस पदमें स्थित इसके प्रतिलोमात्मक प्रणव मन्त्रका उद्भव कहता हूँ , आप सावधानीपूर्वक सुनें | हंस – इस मन्त्रका प्रतिलोम करनेपर ‘ सोऽहम् ‘ ( पद सिद्ध होता है । ) इसके सकार एवं हकार – इन दो वर्णोंका लोप कर देनेपर स्थूल ओंकारमात्र शेष रहता है , यही शब्द परमात्माका वाचक है । तत्त्वदर्शी महर्षियोंके अनुसार उसे महामन्त्र समझना चाहिये । अब मैं सूक्ष्म महामन्त्रका उद्धार आपसे कह रहा हूँ ।। ३७–३९ ।। 

[ हंसः – इस पदमें तीन अक्षर हैं- ह् , अ , स । ] इनमें आदिस्वर ‘ अ ‘ पन्द्रहवें ( अनुस्वार ) और सोलहवें [ विसर्ग ] – के साथ है । सकारके साथवाला ‘ अ ‘ विसर्गसहित है । यदि वह सकारके साथ ‘ हं ‘ के आदिमें चला जाय तो सोऽहम् यह महामन्त्र हो जायगा ॥ ४० ॥ 

हंसका प्रतिलोम कर देनेपर ‘ सोऽहम् ‘ यह महामन्त्र सिद्ध होता है , जिसमें सकारका अर्थ शिव कहा गया है । वे शिव ही शक्त्यात्मक महामन्त्रके वाच्यार्थ हैं ऐसा ही निर्णय है ॥ ४१ ॥ 

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गुरुके द्वारा उपदेशके समय ‘ सोऽहम् ‘ – इस पदसे उसको शक्त्यात्मक शिवका बोध कराना ही अभीष्ट होता है । अर्थात् वह यह अनुभव करे कि मैं शक्त्यात्मक शिवरूप हूँ । इस प्रकार जब यह महामन्त्र जीवपरक होता है अर्थात् जीवकी शिवरूपताका बोध कराता है तब पशु ( जीव ) अपनेको शक्त्यात्मक एवं शिवांश जानकर शिवके साथ अपनी एकता सिद्ध हो जानेसे शिवकी समताका भागी हो जाता है ॥ ४२ १ / २ ॥ 

~ श्रीशिवमहापुराण, कैलास संहिता

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