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Daily Shrimad Bhagavad Gita reading D39

श्रीमद्भगवद्गीता स्वाध्याय
दिवस ३९

श्रीकृष्ण परमात्मने नमः

श्रीकृष्ण प्रीति , भगवत् प्रेम एवं कृपा प्राप्ति तथा जगत कल्याणके उद्देश्य से , मैं (अपना गोत्र और नाम), आज गीता के १० श्लोकों का पाठ कर रहा हूं ।

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ध्यानम् :-
पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारतं |
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीं
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीं ||
गीते ज्ञानमयि त्वमेव कृपया मद्बोधगम्या भव ।
वाणी नृत्यतु मे तथैव सरसा जिह्वाग्रभागे सदा ।।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।10.11।।
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।10.12।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।10.13।।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।10.14।।
स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।10.15।।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।10.16
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।10.17।।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18

अर्थात्:-
मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।।
उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह ‘बुद्धियोग’ देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।
उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।
अर्जुन ने कहा आप -परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हंै; सनातन दिव्य पुरुष, देवों के भी आदि देव, जन्म रहित और सर्वव्यापी हैं।।
ऐसा आपको समस्त ऋषिजन कहते हैं; वैसे ही देवर्षि नारद, असित, देवल ऋषि तथा व्यास और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।।
हे केशव ! जो कुछ भी आप मेरे प्रति कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्, आपके (वास्तविक) स्वरूप को न देवता जानते हैं और न दानव।।
हे पुरुषोत्तम ! हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवों के देव ! हे जगत् के स्वामी ! आप स्वयं ही अपने आप को जानते हैं।।
आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को अशेषत: कहने के लिए योग्य हैं, जिन विभूतियों के द्वारा इन समस्त लोकों को आप व्याप्त करके स्थित हैं।।
हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ, और हे भगवन् ! आप किनकिन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं।।
हे जनार्दन ! अपनी योग शक्ति और विभूति को पुन: विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती।।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशंमया ।
पुत्रोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ॥

श्रीकृष्ण अर्पणं अस्तु

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“”[ इस श्लोकमें छः बातें हैं । उनमेंसे ‘ मच्चित्ता : ‘ और ‘ मद्गतप्राणाः ‘ ये दो बातें स्वयं करनेकी हैं अर्थात् भक्त स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक ऐसे बन जाते हैं , ‘ बोधयन्तः ‘ और ‘ कथयन्तः ‘ – ये दो बातें आपसमें मिलनेपर होती हैं तथा ‘ तुष्यन्ति और रमन्ति ‘ — ये दो बातें फलरूपमें होती हैं ।
भगवान् से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान्से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा है यह बात जिनको दृढ़तासे और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है , उनके लिये कुछ भी करना , जानना और पाना बाकी नहीं रहता । बस , उनका एक ही काम रहता है – सब प्रकारसे भगवान्‌में ही लगे रहना । यही बात इस श्लोकमें बतायी गयी है । ~स्वामी रामसुख दास जी महाराज “”

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