Glory of Srimad Bhagavad Gita (Part 1) || श्रीमद्भगवद्गीता महात्म्य (भाग १)
ऋषि ( शौनक ) ने कहा- हे सूत पूर्वकाल में नारायण क्षेत्र ( नैमिषारण्य ) में महामुनि व्यास द्वारा कथित गीतामाहात्म्य यथावत् वर्णन करें ।।१ ।।
सूतजी बोले– हे भगवन् ! आपने उत्तम प्रश्न किया है , यह परम गुह्यतम है , उस गीता माहात्म्य का वर्णन करने में कौन समर्थ है ? ।।२।।
केवल श्रीकृष्ण ही उसका फल सम्यक् रूप से जानते हैं । कुन्तीपुत्र ( अर्जुन ) , व्यासदेव , व्यासपुत्र ( शुकदेव ) याग्यवल्क्य एवं मैथिल ( मिथिला – नरेश जनक ) इसे किञ्चित् जानते हैं ।। ३ ।।
और इनके अतिरिक्त अन्य सभी कानों द्वारा सुनकर इसके माहात्म्य का लेशमात्र कीर्तन करते हैं ।।४ ।।
सारे उपनिषद् गाय स्वरूप हैं और गोपालनन्दन ( श्रीकृष्ण ) उसके दोहनकर्त्ता हैं । अर्जुन वत्स ( बछड़ा ) हैं , सुधीगण भोक्ता हैं एवं गीतारूपी अमृत ही दुग्धस्वरूप है ।।५।।
जिन्होंने तीनों लोकों के उपकारार्थ अर्जुन की सहायता करते हुए गीतारूपी अमृत का दान किया है उस परमात्मास्वरूप श्रीकृष्ण को नमस्कार ।।६ ।।
जो घोर संसार – सागर को पार करने की इच्छा करते हैं ; वे गीता रूपी नौका का आश्रय लेकर इस संसार सागर को अनायास ही पार कर सकते हैं ।।७ ।।
जो मूढ़ात्मा अभ्यास योग के द्वारा गीताज्ञान का सदा श्रवण ( लाभ ) नहीं करता , तथापि मोक्ष की इच्छा करता है , वह बालकों के उपहास का पात्र बनता है ।।८ ।।
जो व्यक्ति अहर्निश गीता – शास्त्र का श्रवण एवं पाठ करते हैं वे मनुष्य नहीं देवरूप हैं , इसमें तनिक भी संशय नहीं है ।। ९ ।।
गीता – ज्ञान के द्वारा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस सम्यक ज्ञान का बोध कराया उसमें सगुण एवं निर्गुण का परम भक्तितत्त्व निहित है ।। १० ।।
इस प्रकार भुक्ति व मुक्ति में सम्यक रूप से उन्नति प्राप्त अष्टादश सोपानों के द्वारा ( अष्टादश अध्यायों में विभक्त गीता के द्वारा ) प्रेमभक्ति आदि कर्मों में चित्तशुद्धि क्रमशः पनपती रहती है अर्थात् उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त होती रहती है ।।११ ।।
श्रद्धालुओं के लिए गीतारूपी जल से स्नान करना संसार – मल का नाशक होता है , किन्तु श्रद्धाहीन लोगों का यही कार्य हस्ति – स्नान के समान वृथा है ।।१२ । ।
जो व्यक्ति गीता का अध्ययन एवं अध्यापना ( पठन – पाठन ) नहीं जानता , मनुष्य लोक में उसके सारे कर्म वृथा हो जाते हैं । । १३ ।।
अतएव जो गीता नहीं जानता उसकी अपेक्षा अधम और कोई नहीं है । उसके मनुष्य देह , विज्ञान एवं उसकी कुलशीलता को धिक्कार है।।१४ ।।
जो व्यक्ति गीतार्थ नहीं जानता उसकी अपेक्षा अधम और कोई नहीं है । उसके शरीर , विभव , गृहाश्रम एवं सच्चरित्रता को धिक्कार है ।।१५ ।।
जो व्यक्ति गीताशास्त्र ( गीता के उपदेश ) को नहीं जानता उसकी अपेक्षा अधम और कोई नहीं है । उसके प्रालब्ध ( अदृष्ट ) , उसकी प्रतिष्ठा ( ख्याति ) , पूजा , मान एवं महत्त्व को धिक्कार है ।।१६ ।।
गीताशास्त्र में जिसकी मति नहीं है उसका सब कुछ ही निष्फल है । उसके ज्ञानदाता , व्रत , तप , यश एवं उसकी निष्ठा को धिक्कार है ।।१७ ।।
जिसे गीतार्थ का ज्ञान नहीं है एवं जो गीता का पाठ नहीं करता है उसकी अपेक्षा अधम और कोई नहीं है । गीता में जिस ज्ञान के बारे में नहीं बताया गया है , वह ज्ञान आसुरिक ज्ञान है ।।१८ ।।
वह ज्ञान व्यर्थ है , धर्मरहित है एवं वेद – वेदान्तगर्हित है , अतएव धर्ममयी गीता सर्वज्ञान प्रदायिनी है ।।१९ ।।
गीता सर्वशास्त्रों की सारभूता है एवं विशुद्धा है , अतएव विशिष्ट है अर्थात् प्रशंसायोग्य है ।। २० ।।
जो व्यक्ति शालग्राम शिला के समीप , देवालय में शिवालय में , तीर्थ में या नदी के तीर पर गीता का पाठ करते हैं वे निश्चय ही सौभाग्यलाभ करते हैं || २१ ||
देवकीनन्दन श्रीकृष्ण गीतापाठ से जितना तुष्ट होते हैं उतना तुष्ट वेदपाठ , दान , यज्ञ , तीर्थ व व्रतादि से नहीं होते ।।२२ ।।
जो भक्तिपूर्ण चित्त से गीता का अध्ययन करते हैं उनका समुदय वेदशास्त्र व समुदाय पुराण अध्ययन करना हो जाता है , अर्थात् समुदाय वेद – शास्त्र व समुदाय पुराण उनके अधीन हो जाते हैं || २३ ||
जो व्यक्ति योगस्थान में सिद्धपीठ में , शालग्रामशिला के निकट साधुओं की जमात में , यज्ञभूमि में एवं विष्णुभक्तों के समीप गीता का पाठ करते हैं वे परम सिद्धि लाभ करते हैं ।। २४ ।।
जो व्यक्ति नित्यप्रति गीता का पाठ एवं श्रवण करते हैं उनके द्वारा अश्वमेधादि सारे यज्ञ दक्षिणा सहित सम्पन्न माने जाते हैं ।।२५ ।।
जो व्यक्ति गीतार्थ सुनते हैं , दूसरों के समक्ष इसका कीर्तन करते हैं एवं इसके परमार्थ को सुनाते हैं वे परम पद को प्राप्त करते हैं ।। २६ ।।
जो आदर के साथ गीता की विशुद्ध पुस्तक भक्तिभाव से विधिपूर्वक दान
करते हैं उनकी भार्या प्रीतिदायिनी होती है ।।२७ ।।
निसंदेह वे यश , सौभाग्य एवं आरोग्य लाभ करते हैं एवं दयितागण ( स्नेहियों ) के प्रिय होकर परम सुख का भोग करते हैं || २८ ||
जिस घर में गीता की अर्चना होती है उस ओर अभिचार जनित दुःख अथवा वर – शाप से उत्पन्न दुःख तक नहीं जा पाते ।।२९ ।।
कभी भी त्रितापों से उत्पन्न पीड़ा या व्याधि का भय ( वहाँ ) नहीं रहता , शाप , पाप , दुर्गति एवं नरक भी नहीं होता ।। ३० ।।
ऐसे लोगों के देह में कदाचित् विस्फोटकादि व्याधियाँ नहीं हुआ करतीं एवं कृष्ण – पद में ऐकान्तिकी दास्य भक्ति लाभ करते हैं || ३१ ||
प्रारब्ध का भोग करते हुए भी जो गीताभ्यास में रत रहता है , उसमें सभी जीवों के साथ सर्वदा सख्य पनपता रहता है || ३२ ||
जो गीता का अध्ययन करते हैं , वे महापाप या अतिपाप करके भी इस लोक पापमुक्त एवं सुखी रहते हैं , क्योंकि किसी भी कर्म में वे लिप्त नहीं होते ( अर्थात् उन्हें कर्मफल का भोग नहीं करना पड़ता ) । कमल – पत्रस्थ जल के समान कोई भी कर्म उन्हें स्पर्श नहीं कर पाता || ३३ ।।
अनाचारजनित एवं अवाच्य वाक्यप्रयोगजनित जितने भी पाप हैं , अभक्ष्याभक्ष्यजनित एवं अस्पृश्यास्पर्शजनित जितने भी दोष हैं , ज्ञानाज्ञानकृत अर्थात् जाने या अनजाने में किए गए इन्द्रियजनित जितने भी दोष या पाप हैं , ये सभी के सभी गीतापाठ से तत्क्षणात ही विनष्ट हो जाते हैं ।।३४-३५ ।।
सर्वत्र भोजन करके एवं सभी प्रकार के लोगों के समक्ष प्रतिग्रह करेक भी गीता का पाठ करनेवाले कदाचित् पाप में लिप्त नहीं होते || ३६ ।।
रत्नपूर्णा समग्र पृथ्वी पर अन्यायपूर्वक अधिकार करने वाले व्यक्ति भी मात्र एकबार गीता पाठ करके ( लोक में ) स्फटिक के समान निर्मल रहते हैं ।। ३७ ।।
जिनका अन्तःकरण सर्वदा गीता में प्रीतियुक्त है , वे ही साग्निक हैं , वे ही सदा जपकारी , क्रियावान् एवं यथार्थ पण्डित हैं । वे ही दर्शनीय , धनवान् , योगी व ज्ञानवान् हैं , वे ही याज्ञिक , याजी एवं सकल वेदार्थदर्शक हैं ।। ३८-३९ ।।
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