Daily Shrimad Bhagavad Gita reading D53
श्रीमद्भगवद्गीता स्वाध्याय
दिवस ५३
श्रीकृष्ण परमात्मने नमः
श्रीकृष्ण प्रीति , भगवत् प्रेम एवं कृपा प्राप्ति तथा जगत कल्याणके उद्देश्य से , मैं (अपना गोत्र और नाम), आज गीता के १० श्लोकों का पाठ कर रहा हूं ।
ध्यानम् :-
पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारतं |
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीं
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीं ||
गीते ज्ञानमयि त्वमेव कृपया मद्बोधगम्या भव ।
वाणी नृत्यतु मे तथैव सरसा जिह्वाग्रभागे सदा ।।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते।।13.33।।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।13.35।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
श्री भगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।14.1।।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।14.2।।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।14.3।।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।14.4।।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।14.6।।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।14.7।।
अर्थात्:-
हे कौन्तेय ! अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी, वस्तुत:, वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है।।
जिस प्रकार सर्वगत आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सर्वत्र देह में स्थित आत्मा लिप्त नहीं होता।।
हे भारत ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।
इस प्रकार, जो पुरुष ज्ञानचक्षु के द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा प्रकृति के विकारों से मोक्ष को जानते हैं, वे परम ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।
श्री भगवान् ने कहा — समस्त ज्ञानों में उत्तम परम ज्ञान को मैं पुन: कहूंगा, जिसको जानकर सभी मुनिजन इस (लोक) से जाकर (इस जीवनोपरान्त) परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।।
इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप (सार्धम्यम्) को प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते और प्रलयकाल में व्याकुल भी नहीं होते हैं।।
हे भारत ! मेरी महद् ब्रह्मरूप प्रकृति, (भूतों की) योनि है, जिसमें मैं गर्भाधान करता हूँ; इससे समस्त भूतों की उत्पत्ति होती है।।
हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियाँ (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद्ब्रह्म और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ।।
हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं।।
हे निष्पाप अर्जुन ! इन (तीनों) में, सत्त्वगुण निर्मल होने से प्रकाशक और अनामय (निरुपद्रव, निर्विकार या निरोग) है; (वह जीव को) सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से बांध देता है।।
हे कौन्तेय ! रजोगुण को रागस्वरूप जानो, जिससे तृष्णा और आसक्ति उत्पन्न होती है। वह देही आत्मा को कर्मों की आसक्ति से बांधता है।।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशंमया ।
पुत्रोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ॥
श्रीकृष्ण अर्पणं अस्तु