Glory of Srimad Bhagavad Gita (Part 2) (As mentioned in “ShriVaishnaviya TantraSaara) || श्रीमद्भगवद्गीता महात्म्य (भाग २)[श्रीवैष्णवीय तन्त्रसारोक्त ]

Glory of Srimad Bhagavad Gita (Part 2) || श्रीमद्भगवद्गीता महात्म्य (भाग २)

जहाँ पर गीता की पुस्तक रहती है एवं नित्य उसका पाठ होता है , उसी स्थान पर प्रयागादि भूतल के सारे तीर्थ विद्यमान रहते हैं ।।४० ।।

देहरक्षक समुदाय देवगण , ऋषिगण एवं योगिगण ( गीता पाठ करने वालों के ) देह में उनके देहावसान के बाद भी ( देहशेष पर्यन्त ) सर्वदा वास करते हैं ।।४१ ।।

जहाँ गीतापाठ हुआ करता है वहाँ नारद , ध्रुव एवं सहचरों के साथ बालकृष्ण गोपाल सहायक- रूप में विद्यमान रहते हैं । । ४२ ||

जहाँ गीता का पाठ एवं पाठन होता है तथा गीता- विचार होता है वहाँ राधिका सह भगवान् श्रीकृष्ण आमोदित रहते हैं । । ४३ ||

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– हे पार्थ ! गीता मेरा हृदय है , मेरा सारभाग है तथा गीता मेरा अत्युग्र एवं अक्षय ज्ञान है ।।४४ ।।

गीता मेरा उत्तम स्थान है , गीता मेरा परम पद है , गीता मेरा परम गुह्य है एवं गीता मेरा परम गुरु है || ४५ ।।

मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ , गीता ही मेरा परम गृह है । गीताज्ञान का ही आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ ।।४६ ।।

ब्रह्मरूपा गीता मेरी परमा विद्या है , इसमें तनिक भी संशय नहीं । गीता मेरी नित्य अर्द्धांगरूपा एवं अनिर्वचनीया है ।।४७ ।।

हे पाण्डव ! गीता के अति गुह्य सारे नामों को कहता हूँ , सुनो । इन नामों का कीर्तन करने से समुदय पाप तत्क्षणात् ही विलीन हो जाते हैं । । ४८ ।।

गंगा , गीता , सावित्री , सीता , सत्या , पतिव्रता, ब्रह्मावलि ब्रह्मविद्या , त्रिसन्ध्या , मुक्तिगेहिनी , अर्द्धमात्रा , चिदानन्दा , भवघ्नी , भ्रान्तिनाशिनी , वेदत्रयी , परानन्दा एवं तत्त्वार्थज्ञानमञ्जरी ।।४९ -५० ।।

जो व्यक्ति नित्यप्रति स्थिर चित्त से इन सभी नामों का जप करते हैं वे दिनोंदिन ( उत्तरोत्तर ) ज्ञानसिद्धि एवं अन्त में परम पद लाभ करते हैं । ॥५१ ।।

सम्पूर्ण पाठ में असमर्थ व्यक्ति आधा पाठ करें , इससे गोदानजनित पुण्यलाभ होगा , इसमें तनिक भी संशय नहीं । ॥ ५२ ।।

तृतीयांश ( एक तिहाई ) पाठ करने वाले सोमयाग का फल प्राप्त करते हैं एवं षष्ठांश पाठ करने वाले व्यक्ति गंगास्नान का फल लाभ करते हैं । । ५३ ।।

जो निरंतर दो अध्यायों का प्रतिदिन पाठ करते हैं वे इन्द्रलोक लाभ करते हैं एवं निश्चित रूप से वहाँ एक कल्प तक वास करते हैं ।।५४ ।।

जो भक्तियुक्त होकर नित्य प्रति एक अध्याय का पाठ करते हैं वे रूद्रलोक को प्राप्त करते हैं एवं वहाँ गण होकर दीर्घकाल तक वास करते हैं । ।५५ ।।

जो नित्यप्रति एक अध्याय का आधा या चतुर्थांश पाठ करते हैं वे रविलोक को प्राप्त करते हैं एवं वहाँ शत मन्वन्तर तक वास करते हैं । ।५६ ।।

जो व्यक्ति गीता के दश , सात , पाँच , चार , तीन , दो , एक या आधे श्लोक का भी पाठ करते हैं वे अयुत वर्षों तक चन्द्रलोक में वास करते हैं || ५७ ।।

गीतार्थ का एक चरण , एक श्लोक या एक अध्याय का स्मरण करते हुए जो देह त्याग करते हैं वे ( मरणोपरान्त ) परम पद ( मुक्ति ) को प्राप्त करते हैं । ।५८ ।।

अंतकाल में गीतार्थ अथवा गीतापाठ का श्रवण करके महापातक युक्त व्यक्ति भी मुक्ति के भागी हुआ करते हैं । । ५ ९ ।।

जो गीता – पुस्तक के साथ युक्त होकर प्राणत्याग करते हैं , वे वैकुण्ठ को प्राप्त होकर विष्णु के संग परम सुख के साथ वास करते हैं || ६० ।।

गीता के मात्र एक अध्याय से युक्त होकर शरीर त्याग करने पर फिर से मनुष्य जन्म प्राप्त होता है ( एवं ) तब पुनः गीताभ्यास करके उत्तमा मुक्ति लाभ किया जाता है । गीता शब्द का उच्चारण करते हुए शरीर त्यागने पर भी परम गति प्राप्त होती है ।।६१ ।।

गीतापाठ करते हुए जो जो कर्म किए जाते हैं वे सभी कर्म निर्दोष होकर पूर्णता प्राप्त हुआ करते हैं ।। ६२ ।।

श्राद्ध में पितृलोक के उद्देश्य से जो गीता का पाठ करते हैं , उनके पितृगण सन्तुष्ट होते हैं एवं नरक से स्वर्ग में चले आते हैं || ६३ ||

गीतापाठ से सन्तुष्ट होकर श्राद्धतृप्त पितृगण पुत्रों को आशीर्वाद देते हुए पितृलोक के लिए गमन करते हैं । । ६४ ।।

जो व्यक्ति धेनु पुच्छयुक्त ( चामर विशिष्ट ) गीता पुस्तक का दान करता है वह उसी दिन सम्यक रूप से कृतार्थ हो जाता है।।६५ ।।

जो व्यक्ति पण्डित विप्र को स्वर्णयुक्त गीता पुस्तक का दान देते हैं उनका इस लोक में फिर से पुनर्जन्म नहीं होता ।।६६ ।।

गीता पुस्तक की एक सौ प्रतियाँ जो दान करते हैं , वे ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं एवं वहाँ से उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती ।। ६७ ।।

गीतादान के प्रभाव से ( ऐसे व्यक्ति ) वैकुण्ठ को प्राप्त होकर वहाँ सात कल्पों तक विष्णु के संग परम सुख के साथ अवस्थान करते हैं || ६८ ।।

सम्यक रूप से गीतार्थ का श्रवण करके जो व्यक्ति गीता पुस्तक का दान करते हैं , उनपर प्रसन्न होकर श्रीभगवान् उनका मनोभीष्ट उन्हें प्रदान करते हैं ।।६९ ।।

हे भारत ! चारों वर्णों में किसी भी वर्ण में मनुष्य देह धारण करके जो व्यक्ति अमृतरूपिणी गीता का श्रवण या पाठ न करे वह हाथ में प्राप्त अमृत को फेंककर विष का भोजन करता है । ७० ।।

संसार- दुःख से पीड़ित व्यक्ति गीताज्ञान लाभ करके एवं गीतामृत पान करके इस लोक में भक्तिलाभ करके सुखी होते हैं ।।७१ ।।

जनकादि अनेक राजा गीता का ही अवलम्बन करके इस लोक में पापरहित होकर अन्त में परम पद को प्राप्त हुए हैं । । ७२ ।।

गीता ब्रह्मस्वरूपिणी है । इसके अनुसार क्या उच्च क्या नीच इनमें कोई पार्थक्य नहीं है । यह सभी प्रकार के ज्ञान के सन्दर्भ में तुल्यरूप है अर्थात् समभावापन्न है ।।७३ ।।

अभिमान या गर्ववश जो व्यक्ति गीता की निन्दा करता है , वह प्रलयकाल पर्यन्त नरक को प्राप्त होता है ।।७४ ।।

जो मूढ़ात्मा अहंकारवश गीतार्थ को नहीं मानता है , वह कल्पक्षय पर्यन्त कुम्भीपाक नरक में सड़कर मरता है ।।७५ ।।

समीप में रहकर भी जो व्यक्ति कथ्यमान गीतार्थ को नहीं सुनता वह अनेक बार शूकर योनि को प्राप्त होता है।।७६ ।।

जो व्यक्ति गीता की पुस्तक को चोरी करके लाता है उसका कुछ भी सफल नहीं होता , यहाँ तक कि उसका किया पाठ भी वृथा हो जाता है।।७७ ।।

गीतार्थ का श्रवण करके भी जो व्यक्ति परमार्थ में प्रमोदित नहीं होता , उसका श्रम प्रमत्त के श्रम के समान व्यर्थ हो जाता है ।।७८ ।।

गीता सुनने के बाद परमात्मा की प्रीति के निमित स्वर्ण , भोज्यद्रव्य एवं पट्टवस्त्र निवेदन करना चाहिए ।।७९ । ।

नाना द्रव्य , वस्त्रादि व विविध उपायों के द्वारा गीतार्थ वक्ता की भक्तिपूर्वक नाना प्रकार से पूजा करनी चाहिए । ऐसा करने से भगवान हरि प्रीतिपूर्वक तुष्ट होते हैं ।। ८० ||

सूतजी ने कहा — कृष्ण द्वारा कथित इस पुरातन गीता – माहात्म्य का गीता के अन्त में जो पाठ करते हैं , वे ही यथोक्त फल के भागी हुआ करते हैं ।। ८१ ।।

गीता पाठ करने के बाद जो व्यक्ति इसके माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठफल व्यर्थ हो जाता है , केवल मात्र परिश्रम ही हाथ लगता है || ८२ ||

जो इस माहात्म्य के साथ गीता का पाठ करते हैं एवं जो श्रद्धापूर्वक इनका श्रवण करते हैं , वे परम गति को प्राप्त होते हैं ।। ८३ ।।

गीता का अर्थयुक्त श्रवण करके जो इसके माहात्म्य का भी श्रवण करता है उसका पुण्यफल इहलोक में सर्वसुखावह ( सभी सुखों को प्रदान करने वाला ) होता है ।। ८४ ।।

।। इस प्रकार श्रीवैष्णवीयतन्त्रसार में श्रीमद्भगवद्गीतामाहात्म्य समाप्त हुआ।।

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