Shaarirakopanishad
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ | आप हम दोनों ( गुरु – शिष्य ) की साथ – साथ रक्षा करें । हम दोनों को साथ साथ पोषित करें । हम दोनों साथ – साथ शक्ति को प्राप्त करें । हम दोनों द्वारा प्राप्त की गई विद्या तेजयुक्त हो । हम दोनों आपस में कभी द्वेष न करें ।
हे परमात्मन् ! हमारे त्रिविध तापों की शान्ति हो ।
ॐ अथातः पृथिव्यादिमहाभूतानां समवायं शरीरम् । यत् कठिनं सा पृथिवी यद्रवं तदापो यदुष्णं तत्तेजो यत् संचरति स वायुर्यत् सुषिरं तदाकाशम् ॥ 1 ॥
पृथिवी आदि पाँच महाभूतों का संयुक्त रूप ही यह शरीर है । इस शरीर में जो कठिन पदार्थ है वह पृथ्वी तत्त्व है , जो द्रव पदार्थ है वह जलतत्त्व है , जो उष्णता है वह तेजतत्त्व है , जो संचरण करता है , वह वायु तत्त्व है और जो सुषिर ( खाली , छिद्र ) है वह आकाशतत्त्व है ।
श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि । श्रोत्रमाकाशे वायौ त्वगग्नौ चक्षुरप्सु जिह्वा पृथिव्यां घ्राणमिति । एवमिन्द्रियाणां यथाक्रमेण शब्दस्पर्शरूपरस गन्धाश्चैते विषयाः पृथिव्यादिमहाभूतेषु क्रमेणोत्पन्नाः ॥2 ॥
श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । आकाशतत्त्व से श्रोत्रेन्द्रिय , वायुतत्त्व से त्वगिन्द्रिय , अग्नितत्त्व से चक्षुरिन्द्रिय , जलतत्त्व से जिह्वा तथा पृथ्वी तत्त्व से घ्राणेन्द्रिय हैं । और इसी प्रकार इन्द्रियों के अपने अपने विषय शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – ये पृथ्वी आदि भूतों से यथाक्रम उत्पन्न हुए हैं ।
वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानि कर्मेन्द्रियाणि । तेषां क्रमेण वचनादान गमनविसर्गानन्दाश्चैते विषयाः पृथिव्यादिमहाभूतेषु क्रमेणोत्पन्नाः ॥3 ॥
वाणी , हाथ , पैर , गुदा और उपस्थ ( जननेन्द्रिय ) -ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ कही जाती हैं । इन कर्मेन्द्रियों के विषय क्रमश : बोलना , आदान प्रदान करना , चलना , छोड़ना और आनन्द प्राप्त करना है । वे भी पृथ्वी आदि महाभूतों से ही क्रमानुसार उत्पन्न होते हैं ।
मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम् । तेषां क्रमेण संकल्प विकल्पाध्यवसायाभिमानावधारणास्वरूपाश्चैते
विषयाः । मनःस्थानं गलान्तं बुद्धेर्वदनमहंकारस्य हृदयं चित्तस्य नाभिरिति ॥ 4 ॥
मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार – इन चारों को ‘ अन्त : करण – चतुष्टय ‘ की संज्ञा दी गई है । इनके विषय क्रमश : इस प्रकार हैं- ( मन का ) संकल्प – विकल्प , ( बुद्धि का ) निश्चय , ( चित का ) अवधारणा या स्मृति तथा ( अहंकार का ) अभिमान । मन का क्षेत्र गले का अन्तिम भाग , बुद्धि का क्षेत्र मुख , चित्त का क्षेत्र नाभि तथा अहंकार का क्षेत्र हृदय बताया गया है ।
अस्थिचर्मनाडीरोममांसाश्चेति पृथिव्यंशाः । मूत्रश्लेष्मरक्तशुक्रस्वेदा अबंशाः । क्षुत्तृष्णाऽऽलस्यमोहमैथुनान्यग्नेः । प्रचारणविलेखनस्थूला क्ष्युन्मेषनिमेषादि वायोः । कामक्रोधलोभमोहभयान्याकाशस्य ॥5 ॥
अस्थि , त्वचा , नाड़ी , रोंगटे और मांस जो शरीर में हैं वह पृथ्वीतत्त्व का अंश है । जो मूत्र , कफ , रक्त , वीर्य और पसीना हैं , वे जलतत्त्व के अंश हैं । भूख , प्यास , आलस्य , मोह और मैथुन ये अग्नितत्त्व के अंश हैं । फैलना , चलना , गति करना , उड़ना , पलकों का मिलन – उन्मीलन करना , ये सब वायु तत्त्व के अंश हैं और काम , क्रोध , लोभ , भय , मोह आदि सब आकाशतत्त्व के अंश हैं ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः पृथिवीगुणाः । शब्दस्पर्शरूपरसाश्चापां गुणाः । शब्दस्पर्शरूपाण्यग्निगुणाः । शब्दस्पर्शाविति वायुगुणौ । शब्द एक
आकाशस्य ॥6 ॥
शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – ये पाँचों पृथ्वी के गुण कहे गए हैं । शब्द , स्पर्श , रूप और रस – ये चार जल तत्त्व के गुण कहे गए हैं । शब्द , स्पर्श और रूप – ये तीन अग्नितत्त्व ( तेजतत्त्व ) के गुण कहे गए हैं । शब्द और स्पर्श – ये दो वायु तत्त्व के गुण कहे गए हैं और शब्द- यह एक गुण आकाश का कहा गया है ।
सात्त्विकराजसतामसलक्षणानि त्रयो गुणाः ॥7 ॥
सात्त्विक , राजस और तामस – इन तीन लक्षणों से युक्त तीन गुण कहे जाते हैं ।
अहिंसा सत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः । अक्रोधो गुरुशुश्रूषा शौचं संतोष आर्जवम् ॥8 ॥अमानित्वमदम्भित्वमास्तिकत्वमहिंस्त्रता ।
एते सर्वे गुणाः ज्ञेयाः सात्विकस्य विशेषतः ॥ 9 ॥
अहिंसा , सत्य , अस्तेय ( चोरी न करना ) , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह , अक्रोध ( क्रोध का अभाव ) , गुरु की सेवा – शुश्रूषा करना , पवित्रता , सन्तोष , सरलता , अमानित्त्व का भाव , दम्भ का अभाव , आस्तिकता , हिंसक न बनना — ये सब गुण मुख्यरूप से सात्त्विक स्वभाव वाले मनुष्यों में होते हैं ।
अहं कर्ताऽस्म्यहं भोक्ताऽस्म्यहं वक्ताऽभिमानवान् । एते गुणा राजसस्थ प्रोच्यन्ते ब्रह्मवित्तमैः ॥10 ॥ निद्राऽऽलस्ये मोहरागौ मैथुनं चौर्यमेव च । एते गुणास्तामसस्य प्रोच्यन्ते ब्रह्मवादिभिः ॥11 ॥
‘ मैं कर्ता हूँ ‘ , ‘ मैं भोक्ता हूँ ‘ ‘ मैं वक्ता हूँ ‘ – इस तरह के अभिमानयुक्त गुण राजसी प्रकृति वाले मनुष्यों के बताए गए हैं और निद्रा , आलस्य , मोह , आसक्ति , मैथुन और चोरी करना — ये सब गुण तामसी प्रकृति वाले मनुष्यों के ब्रह्मवादियों के द्वारा बताए गए हैं । ( अर्थात् तत्त्वज्ञानियों का यह कहना है अतः सत्य है । )
ऊर्ध्वं सात्त्विको मध्ये राजसोऽधस्तामस इति ॥12 ॥
सम्यज्ज्ञानं सात्विकम् । धर्मज्ञानं राजसम् । तिमिरान्धं ताम समिति ॥13 ॥
सर्वश्रेष्ठ उच्च पद सात्त्विक गुण को कहा गया है । राजस गुण को मध्यम तथा तामस गुण को अधम कहा गया है । सत्य ( ब्रह्म ) का ज्ञान सात्त्विक है , धर्म का ज्ञान राजस है और अन्धकार से युक्त जो अधर्ममूढता है , उसे ही तामस ज्ञान कहा जाता है ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयमिति चतुर्विधा अवस्थाः । ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रि यान्तःकरणचतुष्टयं चतुर्दशकरणयुक्तं जाग्रत् । अन्तःकरणचतुष्टयैरेव संयुक्तः स्वप्नः । चित्तैककरणा सुषुप्तिः । केवलजीवसंयुक्तमेव तुरीय
मिति ॥14 ॥
जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति और तुरीय – ये चार अवस्थाएँ हैं । जाग्रदवस्था में पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच कर्मेन्द्रिय और चार अन्त : करण ( मन – बुद्धि – चित्त – अहंकार ) -ये चौदह करण सक्रिय रहते हैं । स्वप्नावस्था चार अन्त : करण सम्मिलित रूप में क्रियाशील रहते हैं । सुषुप्तावस्था में केवल चित्त ही एकमात्र करण का काम करता है । तुरीयावस्था में तो केवल जीवात्मा ही एकमात्र शेष रह जाता है ।
उन्मीलितनिमीलितमध्यस्थजीवपरमात्मनोर्मध्ये जीवात्मा क्षेत्रज्ञ इति
विज्ञायते ॥15 ॥
खुले हुए और बन्द किए गए नेत्रों के बीच की स्थिति में जीव और परमात्मा – दोनों के बीच जो जीवात्मा है , उसे ‘ क्षेत्रज्ञ ‘ नाम से पहचाना गया है ।
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया ।
शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्मं तल्लिङ्गमुच्यते ॥16 ॥
ज्ञानेन्द्रिय ( 5 ) , कर्मेन्द्रिय ( 5 ) , प्राण ( 5 ) और मन – बुद्धि ( 2 ) — इन सत्रह तत्त्वों का सूक्ष्मस्वरूप लिंगशरीर कहा गया है , ऐसा समझना चाहिए ।
मनोबुद्धिरहंकारः खानिलाग्निजलानि भूः ।
एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकाराः षोडशापरे ॥17 ॥
मन , बुद्धि , अहंकार , आकाश , वायु , अग्नि , जल तथा पृथ्वी – ये आठ प्रकृति के विकार कहे गए हैं । इनके अलावा भी सोलह विकार और ज्यादा भी बताए गए हैं ।
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणं चैव तु पञ्चमम् । पायूपस्थौ करौ पादौ वाक्चैव दशमी मता ॥18 ॥ शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च । त्रयोविंशतिरेतानि तत्त्वानि प्रकृतानि तु ॥19 ॥ चतुर्विंशतिरव्यक्तं प्रधानं पुरुषः परः ॥ इत्युपनिषत् ॥20 ॥
श्रोत्र , त्वचा , चक्षु , जिह्वा तथा घ्राण — ये ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच विकार तथा गुदा , उपस्थ , हाथ , पैर और वाक् — ये पाँच कर्मेन्द्रियरूप विकार तथा शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गन्ध — ये पाँच – ये सभी तथा उपर्युक्त मन आदि आठ विकार मिलकर के कुल प्रकृति के तेईस तत्त्व होते हैं । चौबीसवें तत्त्व को ‘ अव्यक्त ‘ या ‘ प्रधान ‘ या ‘ प्रकृति ‘ कहा जाता है । और पचीसवाँ पुरुष तो इन सभी से परे है । इस तरह कुल मिलाकर पचीस तत्त्वों के समूह वाला यह विश्व ब्रह्माण्ड है । यही यह शारीरक उपनिषत् है ।
इस प्रकार शारीरकोपनिषत् समाप्त होती है ।